एक नदी


तलाश में था एक नदी की
जब आखरी बार मिली थी
जाने असमंजस में थी
या सब जान चुकी थी

कहती थी न पर्बतों से आयी हूँ
ना सागर में जाउंगी
तिश्नगी चढ़ी है
बादलों से मिटाकर आउंगी

बादलों को छू कर
जाने फिर क्या पी आयी थी
ना किनारों से मिलना था उसे
ना कहीं बहकर जाना था उसे

जब बहने को मानी
कहती सागर से गर मिल भी गयी
तोह वहां न रुक कर
क्षितिज से मिलने जाउंगी

ना जाने कहाँ भटक रही है
पर अब फ़िक्र भी नहीं है
क्योंकि अब समझ गया हूँ
खुद को अनन्त समझ बैठी है

Comments

Popular posts from this blog

NOTHING (ELSE) MATTERS

A GOODBYE TO GOODBYE

FIRST LOVE